महान राजा राजराज चोलन जयंती (3 नवम्बर) : एक गौरवशाली युग का स्मरण
✒️ लेखक : R. F. Tembhre Views: 405 प्रकाशन: 03 Nov 2025    अद्यतन: अद्यतन नहीं किया गया

महान राजा राजराज चोलन जयंती (3 नवम्बर) : एक गौरवशाली युग का स्मरण

महान राजा राजराज चोलन जयंती: एक गौरवशाली युग का स्मरण


दक्षिण भारत के इतिहास में राजराज चोलन का नाम एक ऐसे महान शासक के रूप में अमर है, जिन्होंने चोल वंश को उसकी शक्ति और गौरव की चरम सीमा तक पहुंचाया। 3 नवंबर को उनकी जयंती मनाई जाती है। राजराज चोलन (985 ईस्वी - 1014 ईस्वी) तमिल राजा थे और उन्हें 'अरुलमोझिवर्मन' नाम से भी जाना जाता था। उनके शासनकाल को चोल साम्राज्य के स्वर्ण युग का आरंभ माना जाता है।

साम्राज्य का विस्तार और नौसेना शक्ति: राजराज प्रथम ने अपने शासन की शुरुआत में ही रणनीतिक विजयों की एक श्रृंखला शुरू की। उन्होंने चेर, पांड्य और श्रीलंका के हिस्सों पर विजय प्राप्त की। उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि उनकी शक्तिशाली नौसेना थी। चोलों की नौसेना इतनी विशाल और कुशल थी कि उन्होंने हिंद महासागर और अरब सागर के व्यापार मार्गों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यह उस समय दक्षिण एशिया की सबसे शक्तिशाली नौसेनाओं में से एक थी। नौसेना की बदौलत ही उन्होंने मालदीव जैसे द्वीपों पर भी विजय प्राप्त की, जिससे चोलों का प्रभाव समुद्री व्यापार पर बहुत बढ़ गया।

प्रशासनिक सुधार: राजराज चोलन सिर्फ एक महान योद्धा नहीं थे, बल्कि एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने केंद्रीयकृत और सुव्यवस्थित प्रशासनिक प्रणाली की स्थापना की। उन्होंने भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण करवाया और राजस्व के लिए एक ठोस आधार तैयार किया, जिसे 'नाडु' और 'वलनाडु' जैसी इकाइयों में विभाजित किया गया। उनकी प्रशासनिक दक्षता ने साम्राज्य को स्थिरता और समृद्धि प्रदान की।

स्थापत्य कला और संस्कृति को प्रोत्साहन: राजराज चोलन का सबसे अविस्मरणीय योगदान तंजावुर में स्थित बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण है। यह मंदिर उनकी कला और वास्तुकला के प्रति गहरे प्रेम का प्रतीक है। यह मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाइट से बना है और यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल है। यह मंदिर द्रविड़ स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है और उस समय की चोलों की इंजीनियरिंग और शिल्पकला का बेजोड़ नमूना प्रस्तुत करता है। राजराज ने कला, संगीत, और साहित्य को भी बड़ा प्रोत्साहन दिया, जिससे तमिल संस्कृति और ज्ञान का विकास हुआ।

धार्मिक सहिष्णुता: उनकी धार्मिक नीति सहिष्णुता पर आधारित थी। स्वयं शिव के महान भक्त होने के बावजूद, उन्होंने अन्य धर्मों और संप्रदायों का भी सम्मान किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के लिए भी नागपट्टिनम में चूड़ामणि विहार के निर्माण में सहयोग दिया। उनकी यह नीति उनके साम्राज्य की विविधता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाती है।

विरासत: राजराज चोलन की विरासत सिर्फ भौगोलिक विजयों तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी प्रशासनिक दूरदर्शिता, कला और वास्तुकला के प्रति प्रेम तथा सांस्कृतिक समृद्धि में निहित है। उनकी जयंती हमें उस महान राजा की याद दिलाती है जिसने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी। उनकी गाथा आज भी **प्रेरणा** का स्रोत है।

आशा है, उपरोक्त जानकारी ज्ञानवर्धक लगी होगी।
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